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राधामाधवविलासचंपू (शहाजी महाराज चरित्र)
॥श्लोक॥
तव विदुषक तेथे फोडुनी आड फांटा ।
कविस म्हणे करा हो श्लोक ऐसा मऱ्हाटा ॥
श्रवण करुनि राजीं हांसतें तोंड केलें ।
म्हणुनि कविवरें हें निंद्य ही वंर्णियेलें ॥४१॥
तजुन भरवसा हो सर्व ही संगतीचा ।
मनिं धरि जुमला तो उंच उत्संग तीचा ॥
बहुत कठिण किल्ला वेंधला तो गुतीचा ।
तिसहित जणु तेणें भक्षिला हो गु तीचा ॥४२॥
गडांत मिर जुमला सकलिकीं जही कोंडिला ।
उदंड रण मांडिला परि रुका न त्याणें दिल्हा ॥
प्रचंडबल देखिला नृपति शाहजी भोंसला ।
मनांत बहु लासला मग भयें च केला सला ॥४३॥
(२२)
॥ दोहा॥
रायलु विद्यानैरको भाजो सांपरु लंघ ।
देखत नरपति साहको सैन सज्यो चतुरंग ॥
सो जथा ।
देखियत नैनननि सोयि वै न बोलतु है सुनो साहे मकरंद जंतकलरनकी ।
बेडर कहावते सो सब ही डर न लागे डारत तुरंग पौन पात मानोधनकी॥
मर्द सुखलाल देखे जर्द मुख भई सब गई भो मिलाय डारी फौज
दुरजनकी॥४४॥