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संस्कृत भाषेचा उलगडा

२९ पूर्ववैदिकभाषात कंठ्य उच्चाराचे प्राबल्य विशेष असे म्हणून वर सांगितले ह्न त्या भाषात कित्येक समाज कंठ्य: सचा उच्चार बहुतेक ह् सारखा करीत आणि कित्येक समाज कंठ्य: स् चा उच्चार बहुतेक वैदिक स् सारखा करीत; पैकी ह् उच्चार करणारे समाज प्रथमेचे अनेक वचन वयम् असे उच्चारीत. स् उच्चार करणारे जे समाज होते त्यांचे अनेकवचन येणेप्रमाणे साधे :

(३) स् + स् + स् + हम् = ह् + स् + स् + हम् = अ + स्स् + हम् = अस्मह् = अस्म
ह् = अस्म्ह् , अस्म , अस्माँ, अस्मे.
साधे, बने, करीत वगैरे क्रियापदे रूपासंबंधाने योजिलेली पाहून, असा समज होण्याचा क्कचित् संभव आहे की पूर्ववैदिक रानटी समाज प्रकृती, उपसर्ग प्रत्यय वगैरे अवयव घेऊन त्या त्या रूपांची सिद्धी, बनावट व कार्ये ज्ञानत: जाणूनबुजून करीत असावे. तर असा समज करून घेणे युक्त नव्हे. ते रानटी समाज भाषाविषयक सामाजिक स्फूर्तीने रूपांचा उच्चार करीत, रूपांची सिद्धी करीत नसत. साधे, वन इत्यादी क्रियाशब्द आपण जे वर्तमानकालीन वैय्याकरण व शाब्दिक योजतो ते रूपांचे पृथक्करण करणारे शास्त्रज्ञ या नात्याने योजतो ह्न असो. कंठ्य: स् चा ह् उच्चार करणाऱ्या व स् उच्चार करणाऱ्या अशा दोन्ही समाजाची वचनांची एकंदर रूपे अशी :

    १                  ३                     २
अहम्             आवाम्              वयम्
कहम्             आवा               अस्मह्
म्                                       अस्मा, अस्माँ
                                           अस्म
                                           अस्मे
* प्राकृतभाषातील हम् हे वेदपूर्वकालीन हम् हे रूप आहे. प्राकृतातील अहअम् हे रूप अहकम् (अकच्) या रूपांचा अपभ्रंश.
* प्राकृतातील अह्य हे रूप पूर्ववैदिक अस्मे चा अपभ्रंश.