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(२७)
दख्खनमाखा एक कवि नाम दियौ जदुराज ।
सब कबिकोविदहंसमों सोहु जैसो दुराज ॥
साहजकी बिनती सुनो साहेब रुरनु शिरोमनि हो नृपमालके ।
या जुगमो तुमसे न परीछक जानत हो गुन काचके ताले ॥
पाछे सुबर्नके बित्त रह्यो अरु चामचे दाम भये सब लालके ॥६१॥

(२८)
संताजी नृप साहे निज हात । सो जथा ।
साहेबके सुब संतजिनें करि पारथसो निजसार तुलासी ।
आगल राह वराहने दौरि कै घोर हन्ये चल्यो मानि खलासी ॥
डारि तुरंग हनी सो तो कोंधि गई घनमो चपलासी ।
माहि द्विधा करि ज्यौं ककरी निकरी सुरभान ते भानुकलासी ॥६२॥

(२९)
आवो फागुनमास तब देत परसपर गारि ।
कबिकोबिद यह विद्य रची सो गुनिजन गावे धमारि ॥

सो जथा ।

खेलत साहे महीपति होरी ।
बिबिध बसन आभूखन पहरे वनिता बनि एक गोरी ॥धृ॥
चंद्रबदनि म्रिगनयनि छबीली बैस हुवी किअति घोरी ।
मानो बस भयि नंदलालको राधा गोपकिशोरि ॥
बाजे पटह कर जटित पिचकारि छिरकत हे चखचोरी
मानो हस्त कनक चरन सो बर खमुतु है घनघोरि ॥६३॥