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तथाहि ।
वृषयुक्पुष्पवत्पेटी मार्गवृक्षेण पाटिता ॥
कीर्णार्धा तारकाव्याजाद् अर्धा द्यौ स्त्वरयापतत् ॥१६७॥
एकांबर मुभयो रपि लापित मेनेन हंत शिशिरेण ॥
अभजत्ततो नु भानु र्बहुकाष्ठांतरमरुल्ललज्ज्वलनं ॥१६८॥
कविना प्रतिभाविजित: प्रभाकरोपि न तु जाडय मापन्न: ॥
प्रययौ निरुत्तर: सन् पुष्येसौ जातवेदस: शरणं ॥१६९॥
अगमत्सुभगां नु कर्मसाक्षी शिशिरर्ता वभिसारत स्तिमिस्रां ॥
प्रविलोक्य गुरूदरत्व मस्या स्तत एव त्वरयोत्पथं जगाम ॥१७०॥
माघे स्नात्वाब्धिसलिलादुन्ममज्ज दिवाकर: ॥
एकांबरावृतो गेहे शीतार्त्त स्तूर्ण मभ्यगात् ॥१७१॥
निर्जितां नु शिशिरेण निर्ययौ भानु रेष कलिना यथानल: ॥
पुष्करा दपसर न्निरंकुश: सीतबिभ्यदभि पावकीं दिशं ॥१७२॥

एवं वसंतप्रमुखर्तुभि: स्वस्वलीलासु प्रदर्शितासु भगवान् यशोदादायाद: प्रियया सह राधया कदाचन सकलकुसुपरिमलास्वादनै: कदाचन जलक्रीडाभि: चंदनचर्चनै: पुष्पशय्याविवर्त्तनै: कायमानविहारै: कदाचन मदनकेलीविलासै स्तत्तदृतुधर्मान् सार्थकीकुर्वन् आनंदबंधुर: सुख मुवास ॥

॥श्री:॥
इति श्रीमज्जयरामकविरचिते राधामाधवविलासे चंपूकाव्ये षड्ऋतुवर्णनं नाम चतुर्थोल्लास: ॥४॥