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मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने खंड आठवा (१६४९-१८१७)

[ १४६ ]                                    श्री.                                               १७३६.
                                          

                                     श्रीशाहूनृपहर्षेण
                                     कान्होजीतनुजन्मन. ।
                                    आंगरेसरखेलस्यशंभो -
                                    र्मुद्रा विराजते ।।

राजश्री भगवंतराव अमात्य हुकमतपन्हा गोसावी यासीः -

1सकलगुणालंकरण अखंडितलक्ष्मीअलंकृत राजमान्य स्ने ।। संभाजी आंगरे सरखेल रामराम विनंति उपरि येथील कुशल जाणून स्वकीय कुशल लेखन करीत असिलें पाहिजे. विशेष आपण रा। एस ठाकूर व मल्हारजी सूर्यवंशी यांजबरोबर पत्रें पाठवलीं व रा । सुभानजी गाटे व उभयता मानिल्हे यांणीं कितेक आपल्या स्नेहभावाचा अर्थ निवेदन केला. ऐशास, आपला आमचा स्नेह अविनाभावें पूर्वार्जित चालत आला होता त्याची दृढता होऊन परस्पर कार्यप्रयोजनप्रसंगीं यश जय रास. सर्व साहित्यानिशी अनुकूल होऊन योजिले मनोरथ सिद्धीते पावे हा चित्तापासून संकल्प करून सुभानजी गाटे यास आपल्याकडेस पाठविला. तदनुरूप गोसावी याहीं मान्य करून विजयदुर्ग तैसाच बावडा ऐसें मानावें, ह्मणून कित्येक विशदें लेख केला व मुखवचनीं सांगोन पाठविलें, तेणेंकरून समाधान जाहालें. प्रस्तुतच कार्यभाग योजावा तरी राजश्री स्वामीचा आमचा विवेक होऊन येत असे. त्याची दृढता होऊन आलियानंतर कार्यभाग सिद्धीतें पाववून ह्मणून. तरी राजश्री स्वामीचा विवेक होऊन येणें तो होऊन आलाच असेल किंबहुना सत्वर कालेंच उरकून घ्यावा. तदोत्तर इकडील मजकूर पेशजीपासून आपण मान्य केला आहे त्याचें समर्पक उत्तर द्यावें आह्मीं त्याजप्रमाणें तरतूद करून उत्तर पाठवून देऊं याचें उत्तर शीघ्र कालेंच पाठवून द्यावें. याउपरि दुसरा विचार किमपि नाहीं, हा आपला निशा असों द्यावा, व आह्मीं आपल्या पत्राचा मार्ग लक्षून बेफिकिर असों. रा। छ ५ रजब. बहुत काय लिहिणें लोभ कीजे हे विनंति.
                                                  लेखनसीमा.