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मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने खंड दहावा (१७६१-१८१७)
पत्रांक. ४०७
श्री. १७३८ आश्विन वा १३
श्रीमहाराजाधिराज श्रीमाहाराजा अलीजाह सुवेदारजी श्रीदौलतरावबहादुर सिंदेजू. येते श्रीमहाराजधिराज श्रीमाहाराजा श्रीराजा धौकलसिंघजूदेवके वांच. आपर, उहांके समांचार सर्वदां भले चाहिजैं. इहाके समांचार आपुके करेतैं भले हौतें. आपर पाती षलीता आवो. हकीकति जांनीया. भांति लिषिवेमैं आई कै इहांके राज्यका बंदोवस्तु जलदी भयौ जातु है. फेर अपनै राज्यके कांमकौ जावुस्वालु करि जरूर निरयार करि पठवाईवेमैं आइ हैं. और श्रीमाहाराज कोमांर श्रीरावप्रथीसिंघजुदेवकौं लिषी है, तासौं जांनिवेमैं आइ है. ताकौ और हकीकती सब तपसीलवार श्रीरावककामुसारनलेकी याती तैं जांनी, सो भांतिभांति षातिर भई. आपके करे तै तौ जंबूदीप भरेके कार्जनकौ सुघारु होतु है. यौ राज्य तौ आपुहीकौ आई. अब हमांरे कांमकौ जरूर कैसला करि पठवाइवेमैं आवै. अब देर न होइ. जेठिनके पग वदले भाईचारे व्यौहारपर नजरि करिवेमै आवे. यौ राजु हम सब आपुहीके है. और हकीकति श्री–रावक कामुसारनलैके लिषे तैं जानिवेमैं आइ है. उहाके आनंद षुसी कीषवरें हमेस लिषवेमै आइ है. कातिक वदि १३ संवतु, १८५३ मुकांमु रींवां.