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ही रूपे अत्यंत प्राचीन अशा पूर्ववैदिकसमाजाच्या भाषात प्रचलित होती. त्या समाजाची गती वचनांची रूपे साधण्याकपलीकडे गेली नव्हती. पुढे द्वितीयादी विभक्तीप्रत्यय लावण्याचा प्रघात पडून वैदिकभाषेत व वैदिकसमकालीन प्रांतिकभाषात विभक्त्यांची रूपे इतर शब्दांच्या रूपांप्रमाणे साधली गेली. त्या रूपांची साधनिका येणेप्रमाणे :

(४) हम् + म् = हम् म् = मम्, माम् , मा
* प्राकृतात मम् हे रूप येते.
(५) आवाम् + म् = आवाम्
(६) अस्माँ + म् = (अनुनासिकाचा न् होऊन) अस्मान्म् = अस्मान्
अस्मह् + म् = अस्मह् अस्मे + म् = अस्मे
(७) हम् + स्या = हम् + या = हम् + या = मया
म् + स्ये = ह्य + ह्ये = हम् + ये =मये
* प्राकृत मे, मईं, मए ही रूपे मया व मये या रूपांचे अपभ्रंश आहेत.
(८) आवा + भ्याम् = आवाभ्याम्
(९) अस्मा + भिस् = अस्माभि:
अस्मे + भिस् = अस्मेभि:
* प्राकृत अह्यहिँ हे रूप पूर्ववैदिक अस्मेभि: चा अपभ्रंश किंवा वास्तविकपणे
भ् चा ह होऊन व स् चा ह होऊन अह्येहिँ हे रूप पूर्ववैदिक अस्मेभि: या रूपाचा समकालीन पर्याय आहे.
(१०) हम् + भ्य = म + ह्य = म + य = म + इ = मे
म् + भ्यम् = मह्यम् , मभ्यम्
* भ्य = ह्य
(११) आवा + भ्याम् = आवाभ्याम्
(१२) अस्म + भ्यम् = अस्मभ्यम्, अस्माभ्यम्, अस्मेभ्यम्
         अस्मा
         अस्मे

* भ्यस्च्या ऐवजी भ्यम् प्रत्यय विशेष आहेत.