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(५७)
कुंडलिया
गायो उत्तरदेसको द्वै गुनि अति अभिराम ।
नाम एकको लालमनि दुसरो है घनशाम ॥
वात अचंभो एक यह जंत्र सजे को ठाट ।
चित्रचना के दारि मह चित्रचनाकेदारि मह ॥
चित्रचना केदारि वारन साट लिखि ल्यायो ।
जंत्र सज्यो जह ठाट राग मारुत वुरि गायो ॥

झूल्लणा
घंघाग्रिदि घनशाम बंबग्रिदि वात कही छंछग्रिदि छंद पुनिए एक गायो ।
मंमग्रिदि मत्तगज हंहग्रिदि हेम हय तंतग्रिदि ताहि घरि दान पायो ॥
जंजग्रिदि जंत्र अरुचिंचिग्रिदि चित्र पुनि नंनग्रिदि नृप साहे करि सिखायो ।
कंकग्रिदि कवि माहें जंजग्रिदि जंयराम यंयग्रिदि यह भात पठि दिखायो ॥१३२॥

(५८)
दोहा
द्वै वह वात पर अरु अमृतध्वनि यक छंद ।
मनमों कवि जयरामके पठन होत आनंद ॥
जंत्र सज्यो नृप साहे जगकल्यानहिके ठाट ।
उपजत नित सिरिराग तह भयौ विसंभर भाट ॥
अद्धचना पर कोटि गज लिखतें कोन विशेख ।
दसवीस कगज साहजी दये तिलक पर देख ॥

छंद हृदयंगम
सोजू पूर्व तिलकदान जले गयो । भादोमाह बिसंभर त्याग अब हीं लयो ॥
ऐसे और अनंत नरोत्तमउ पायके । हरि हां हां भाइ देसोदेस गये साहेसुजस
गायके ॥१३३॥